भारत में Medicines महंगी? जानिए इसके पीछे की सच्चाई

Health News: भारत, जिसे “Pharmacy of the World” कहा जाता है, global pharmaceutical market में अपनी मजबूत पकड़ के लिए जाना जाता है। यहां की pharmaceutical companies दुनिया के 150 से ज्यादा देशों में दवाइयां export करती हैं, और global generic medicines market का लगभग 20% हिस्सा भारत से आता है। इसके बावजूद, हमारे ही देश में कई essential दवाइयां आम जनता की पहुंच से बाहर हैं।

भारत में healthcare affordability हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है, क्योंकि यहां की आबादी का बड़ा हिस्सा low-income या middle-income वर्ग से आता है। ऐसे में, सवाल उठता है कि दुनिया को सस्ती दवाइयां देने वाले देश में, वही दवाइयां यहां की जनता के लिए इतनी महंगी क्यों हैं? क्या इसके पीछे production cost का असर है, या ये समस्या distribution network में छिपी है? आइए इस case study में इन सवालों के जवाब तलाशते हैं।

दवाइयां महंगी होने के पीछे के कारण

भारत में दवाइयों की कीमतें कई layers से प्रभावित होती हैं। यह सिर्फ manufacturing cost तक सीमित नहीं है, बल्कि drug development, regulatory hurdles, और supply chain complexities का भी इसमें योगदान है। आइए इन कारणों को विस्तार से समझते हैं:

  • Research and Development (R&D) का भारी खर्चा: नई दवाइयां बनाने की प्रक्रिया काफी लंबी, खर्चीली और जोखिम भरी होती है। दवाइयों को market में लाने से पहले उन्हें कई चरणों में test किया जाता है, जिसमें pre-clinical studies, human trials, और safety testing शामिल हैं। हर एक स्टेज पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। R&D का सबसे बड़ा challenge है कि 10 में से 9 दवाइयां market में आने से पहले fail हो जाती हैं। इस failure का खर्च भी successful drugs की कीमत में जोड़ा जाता है।
  • Raw Materials पर Import की Dependency: भारत दवाइयों के Active Pharmaceutical Ingredients (APIs) के लिए काफी हद तक imports पर निर्भर है, खासकर China पर। APIs दवाइयों के मुख्य घटक होते हैं। जब international markets में इनकी कीमत बढ़ती है, तो इसका सीधा असर दवाइयों की manufacturing cost पर पड़ता है। वैश्विक सप्लाई चेन disruptions, जैसे COVID-19 महामारी, ने APIs की कीमतों में बड़ा इजाफा किया, जिससे दवाइयां और महंगी हो गईं।
  • Regulatory Costs और Compliance का बोझ: दवाइयों को market में लाने के लिए हर देश की regulatory approvals जरूरी होती हैं, जो समय और पैसा दोनों लेती हैं! Drugs Controller General of India (DCGI) और अन्य agencies से approvals लेने में काफी paperwork और testing होती है, जो कंपनियों के लिए financial burden बनती है। अगर approvals में देरी होती है, तो production timelines प्रभावित होती हैं, जिससे overall cost बढ़ जाती है।
  • Patents और Monopoly का खेल: दवाइयों की कीमतें काफी हद तक patents और market competition पर निर्भर करती हैं। Patented medicines पर केवल patent holder company का अधिकार होता है, जिससे वे दवाइयों के दाम अपने हिसाब से तय कर सकती हैं। जब तक किसी patented drug का patent expire नहीं होता, उसकी generic version market में नहीं आ सकती, जिससे affordability कम हो जाती है।
  • Distribution और Supply Chain की Complexities: दवाइयां consumers तक पहुंचने से पहले कई levels से होकर गुजरती हैं। Manufacturer से लेकर retailer तक हर intermediary अपनी margin जोड़ता है, जिससे final price बढ़ जाता है। Temperature-sensitive medicines, जैसे vaccines और biologics, को transport और store करने में extra costs लगती हैं, जो consumer तक पहुंचते-पहुंचते price को और बढ़ा देती हैं।
  • High Taxes और Mark-ups: भारत में दवाइयों पर लगने वाले indirect taxes और retail mark-ups भी इन्हें महंगा बनाते हैं। कई दवाइयों पर 5-12% तक का GST लगता है, जो final price में जुड़ जाता है। Distributors और retailers अपनी sales margin बढ़ाने के लिए दवाइयों की कीमतों में काफी इजाफा कर देते हैं।

दवाइयों की महंगी कीमतों का असर

दवाइयों की बढ़ती कीमतों का प्रभाव न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि पूरे healthcare system पर देखा जा सकता है। यह समस्या विशेष रूप से middle और lower-income समूहों के लिए एक बड़ी चुनौती है। आइए इसे गहराई से समझते हैं।

मरीजों पर आर्थिक बोझ (Financial Burden on Patients): दवाइयों की महंगी कीमतों का सबसे बड़ा असर सीधे उन लोगों पर पड़ता है, जिन्हें इनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। भारत की 60% आबादी lower या middle-income वर्ग से आती है। ऐसे परिवारों के लिए महंगी दवाइयां खरीदना संभव नहीं होता। NITI Aayog की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 63 मिलियन लोग हर साल healthcare expenses के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं।

World Health Organization (WHO) के मुताबिक, भारत में लगभग 40% आबादी essential medicines को afford नहीं कर सकती। इसका मतलब है कि कई लोग life-saving treatments से वंचित रह जाते हैं।Diabetes, hypertension, और cancer जैसी बीमारियों के लंबे इलाज के लिए महंगी दवाइयां patients पर भारी financial pressure डालती हैं। Insulin जैसी essential medicine, जो diabetes patients के लिए जरूरी है, इसकी monthly cost low-income families के लिए sustainable नहीं है। The Indian Council of Medical Research (ICMR) के अनुसार, untreated diseases के कारण हर साल भारत की GDP का लगभग 1.4% नुकसान होता है।

Healthcare System पर असर (Impact on Healthcare System): दवाइयों की बढ़ती कीमतें पूरे healthcare system को प्रभावित करती हैं। भारत में healthcare का 60% खर्च out-of-pocket होता है, जिसका एक बड़ा हिस्सा दवाइयों पर खर्च होता है। National Health Profile 2021 के अनुसार, औसतन, हर भारतीय अपने healthcare expenses का 48% सिर्फ दवाइयों पर खर्च करता है।
विकसित देशों में, जैसे UK या Canada, यह आंकड़ा 15-20% के आसपास है, क्योंकि वहां public healthcare systems मजबूत हैं।

महंगी दवाइयों का असर government-sponsored health schemes पर भी पड़ता है। इस योजना का उद्देश्य गरीब परिवारों को healthcare services देना है। लेकिन महंगी दवाइयों के कारण इस योजना का खर्च काफी बढ़ गया है, जिससे सरकार पर वित्तीय दबाव बढ़ा है। Government schemes, जैसे Jan Aushadhi Yojana, का उद्देश्य सस्ती generic दवाइयां उपलब्ध कराना है, लेकिन awareness की कमी और doctors द्वारा branded drugs prescribe करने की प्रवृत्ति इसे कम प्रभावी बनाती है।

इलाज छोड़ने की प्रवृत्ति (Skipping Treatment Due to Costs): महंगी दवाइयों के कारण कई मरीज अपना इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं। The Lancet Oncology की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में लगभग 50% cancer patients financial constraints के कारण treatment discontinue कर देते हैं। महामारी के समय, Remdesivir और Tocilizumab जैसी दवाइयों की exorbitant pricing ने कई families को गहरी financial crisis में डाल दिया। 

महंगी दवाइयों के समाधान

दवाइयों की बढ़ती कीमतें एक गंभीर समस्या हैं, लेकिन इसे हल करने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं। सरकार, pharmaceutical companies, और जनता के सहयोग से healthcare को affordable बनाया जा सकता है। आइए इन संभावित समाधानों को विस्तार से समझते हैं।

Generic Drugs को बढ़ावा देना: Generic drugs दवाइयों का वह version होती हैं, जो branded drugs जितनी ही effective होती हैं लेकिन कीमत में बहुत सस्ती होती हैं। Doctors को generic medicines prescribe करने के लिए प्रोत्साहित करना जरूरी है। Branded drugs के मुकाबले generics 50-90% तक सस्ती होती हैं। Generic drugs को लेकर myths दूर करने के लिए जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। ‘Jan Aushadhi Yojana’ के तहत generic drugs की availability को promote किया जा रहा है। सरकार ने देशभर में Jan Aushadhi Kendras खोलने की पहल की है, जहां सस्ती दवाइयां उपलब्ध हैं। Pharmaceutical companies को generic versions बनाने के लिए incentivize करना चाहिए।

API Production में आत्मनिर्भरता: Active Pharmaceutical Ingredients (APIs) किसी भी दवाई का मुख्य घटक होता है। वर्तमान में भारत API के लिए 70% से अधिक निर्भरता China पर रखता है। Government initiatives जैसे ‘Production Linked Incentive (PLI) Scheme’ को मजबूत करना चाहिए, जो घरेलू API उत्पादन को बढ़ावा देता है। देशभर में API manufacturing hubs स्थापित करने से imports पर निर्भरता कम होगी। Advanced manufacturing technologies अपनाकर API production को competitive बनाया जा सकता है। IBEF (India Brand Equity Foundation) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत 2024 तक API production में 20% आत्मनिर्भरता हासिल करने का लक्ष्य रखता है।

Price Regulation को मजबूत करना: महंगी दवाइयों को affordable बनाने के लिए price control एक प्रभावी उपाय है! NPPA दवाइयों और medical devices की कीमतों को regulate करती है। इसे और सख्त करने की जरूरत है ताकि सभी essential medicines की कीमतें आम आदमी की पहुंच में हों। Essential Medicines List (EML) में शामिल सभी दवाइयों पर price cap लागू किया जाना चाहिए। दवाइयों के pricing process को transparent बनाया जाए, ताकि manufacturers और distributors के बीच किसी भी तरह के unfair practices को रोका जा सके।

Subsidies और Incentives: Critical और life-saving medicines को सस्ता बनाने के लिए सरकार को financial interventions की जरूरत है। Cancer, cardiovascular diseases, और diabetes जैसी बीमारियों की दवाइयों पर subsidies देकर इन्हें गरीबों और middle-income groups के लिए affordable बनाया जा सकता है। Government ने कुछ कैंसर दवाइयों पर 70% तक की कीमतें घटाई हैं। Pharmaceutical companies को सस्ती दवाइयों के production और distribution के लिए tax benefits और financial support दिया जाना चाहिए। Health insurance schemes के तहत महंगी दवाइयों को cover करना affordability बढ़ा सकता है।

विश्व स्तर पर तुलना

भारत में दवाइयों की कीमतें कई मामलों में वैश्विक स्तर पर काफी कम हैं, लेकिन कुछ दवाइयों की कीमतें अभी भी उच्च बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए, कैंसर की दवा Trastuzumab (Herceptin) भारत में ₹1,50,000 प्रति डोज़ मिलती है, जबकि अमेरिका में इसकी कीमत ₹5,00,000 प्रति डोज़ तक हो सकती है, क्योंकि भारत में इसके सस्ते generic विकल्प उपलब्ध हैं। इसी तरह, Imatinib (Gleevec) भारत में ₹7,800 प्रति माह में उपलब्ध है, जबकि अमेरिका में यह ₹1,70,000 प्रति माह तक पहुंच सकता है। दूसरी ओर, डायबिटीज़ की दवा इंसुलिन भारत में ₹500-₹800 प्रति vial में मिलती है, जबकि अमेरिका में इसकी कीमत ₹7,500-₹10,000 प्रति vial तक हो सकती है। इन कीमतों के अंतर का मुख्य कारण भारत में generic drugs की उपलब्धता और कम उत्पादन लागत है, जबकि अमेरिका और अन्य विकसित देशों में patented drugs और complex regulatory processes कीमतों को बढ़ाते हैं। हालांकि, कुछ दवाइयां, खासकर imported medicines, भारत में भी महंगी हैं, क्योंकि इनके raw materials और APIs अक्सर विदेशों से आयात किए जाते हैं।

निष्कर्ष

भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों का मुख्य कारण कई स्तरों पर मौजूद समस्याएं हैं, जैसे R&D का भारी खर्चा, API के लिए विदेशी निर्भरता, patents के कारण उत्पन्न monopoly, और distribution chain की complexities। हालांकि, इन चुनौतियों को सुलझाना असंभव नहीं है। हमें innovation और affordability के बीच संतुलन बनाना होगा ताकि दवाइयों तक हर व्यक्ति की पहुंच सुनिश्चित की जा सके। इसके लिए सरकार को price control measures को और मजबूत करना होगा, pharmaceutical कंपनियों को सस्ती generic दवाइयां बनाने के लिए प्रोत्साहन देना होगा, और उपभोक्ताओं को जागरूक करना होगा। healthcare system की affordability और accessibility तभी संभव है जब सरकार, उद्योग, और जनता मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाएं। आखिरकार, सस्ती और accessible healthcare हर नागरिक का हक है, न कि केवल उनके लिए जो इसे वहन कर सकते हैं।

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