Kerala Nursing College Ragging Case: भारत में रैगिंग सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि यह एक गहरी मानसिक और शारीरिक समस्या बन चुकी है, जिसका सामना हजारों छात्र कर रहे हैं। यह एक मेजर प्रॉब्लम है, लेकिन सोशल मीडिया पर फिल्मों या सीरीज में इसे बहुत कूल दिखाया जाता है। इन्फ्लुएंस तो हर अच्छी बुरी चीज़ का हो सकता है, खैर! अभी हाल ही में केरल के कोट्टायम में हुए रैगिंग के घातक मामले (Kerala Nursing College Ragging Case) ने एक बार फिर रैगिंग की गंभीरता को उजागर किया है। पांच 3rd ईयर के नर्सिंग छात्रों को गिरफ्तार किया गया है, जिन्होंने जूनियर स्टूडेंट्स की रैगिंग की। यह घटना भारत में रैगिंग के बढ़ते मामलों का संकेत देती है, जो छात्रों की जान और करियर दोनों के लिए खतरे का कारण बन रही है।
क्या हुआ था कोट्टायम में?
कोट्टायम के सरकारी नर्सिंग कॉलेज में 5 3rd ईयर के छात्रों ने जूनियर स्टूडेंट्स के साथ वह किया, जो कोई भी सोच नहीं सकता। उन्हें नग्न करके निजी अंगों से डम्बल लटकाए गए, और ज्योमेट्री बॉक्स के कांटे से घायल किया गया। इन छात्रों पर लोशन लगाकर दर्द बढ़ाया गया और जब वे चीखे, तो उन्हें धमकी दी गई कि अगर वे शिकायत करेंगे, तो उनका फ्यूचर भी खत्म कर दिया जाएगा। यह मामला केवल शारीरिक उत्पीड़न तक सीमित नहीं था, बल्कि मानसिक रूप से भी छात्रों को इतना दबाया गया कि उन्हें आत्महत्या के ख्याल तक आए।
पुलिस ने तुरंत कार्रवाई की और पांच छात्रों को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार आरोपियों में सैमुअल जॉन (20), जीवा (19), विवेक (21), निजिल जित (20), और राहुल राज (22) शामिल हैं। पुलिस ने बताया कि ये घटना नवंबर 2024 से शुरू होकर तीन महीने तक चलती रही। यह घटना एक बड़ा सवाल उठाती है: आखिर क्यों भारत में रैगिंग की समस्या इतनी बढ़ रही है? क्या यह सिर्फ कुछ छात्रों का मजाक है, या फिर एक ख़राब मानसिकता है?
54 छात्रों ने रैगिंग के कारण की आत्महत्या
पिछले कुछ सालों में भारत में रैगिंग के मामले लगातार बढ़े हैं। ओडिशा में 2022 में 68 शिकायतें दर्ज की गईं, और इनमें से 3 छात्र ऐसे थे, जिन्होंने रैगिंग के टार्चर के कारण आत्महत्या कर ली। वहीं, अगर उत्तर प्रदेश की बात करें, तो 2019 में रैगिंग के 1,078 मामले सामने आए। ये आंकड़े इस बात को साबित करते हैं कि रैगिंग अब सिर्फ एक शारीरिक उत्पीड़न नहीं है, बल्कि यह छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी बेहद खतरनाक हो गया है। नेशनल लेवल पर और भी बुरा हाल है। पिछले सात सालों में, भारत में रैगिंग की 4,700 शिकायतें सामने आयी हैं, जिनमें से 54 छात्रों ने रैगिंग के कारण आत्महत्या कर ली। और उन मामलों का क्या, जो डर या अन्य कारणों की वजह से सामने नहीं आये? यह सिर्फ एक संख्या नहीं है, बल्कि बच्चों की जिंदगियां ख़त्म हो जाती हैं।
रैगिंग सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं है, बल्कि यह मानसिक रूप से छात्रों को बुरी तरह प्रभावित करती है। रैगिंग के दौरान छात्रों को मानसिक रूप से इतना कमजोर किया जाता है कि वे अपना आत्मसम्मान खो बैठते हैं। तनाव, अवसाद, और आत्महत्या जैसे गंभीर मानसिक मुद्दे रैगिंग के बाद काफी आम हो जाते हैं। शारीरिक रूप से, छात्रों को गंभीर चोटें, घाव और अन्य शारीरिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। कई मामलों में तो रैगिंग के कारण छात्रों को लंबे समय तक इलाज की जरूरत होती है।
रैगिंग पर कानून की प्रतिक्रिया
भारत में रैगिंग के खिलाफ कई सख्त कानून हैं। रैगिंग एंड उसका दुष्प्रभाव निवारण अधिनियम 1997 के तहत रैगिंग को अपराध माना गया है। इसके बावजूद, रैगिंग के मामलों में कमी नहीं आई है। कई शैक्षिक संस्थान रैगिंग को रोकने के लिए सख्त कदम उठा रहे हैं, जैसे कि:
- सुप्रीम कोर्ट का आदेश और यूजीसी के निर्देश
- 2001 में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में रैगिंग पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस फैसले के बाद रैगिंग के खिलाफ कानूनी प्रावधानों में और कड़ी सजा का प्रावधान किया गया।
- 2009 में, यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (UGC) ने उच्च शिक्षा संस्थानों में रैगिंग को रोकने के लिए कड़े नियम बनाए। इसमें न सिर्फ रैगिंग की घटनाओं की रोकथाम के लिए अलगी होस्टल्स, बल्कि अचानक छापे और रैगिंग की घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए एक केंद्रीकृत तंत्र भी स्थापित किया गया।
अवेयरनेस, स्ट्रिक्ट मॉनिटरिंग और लीगल एक्शन्स के बावजूद ये मामले बढ़ रहे हैं। रैगिंग भारत में एक गंभीर समस्या बन चुकी है, जो छात्रों के जीवन को प्रभावित कर रही है। हर साल रैगिंग के मामलों में वृद्धि हो रही है, और इसके मानसिक और शारीरिक प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता। कोट्टायम का मामला सिर्फ एक उदाहरण है, जो यह बताता है कि रैगिंग का स्तर कितनी खतरनाक दिशा में जा सकता है।
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