Global Poverty: यूनाइटेड नेशन के अनुसार दुनिया की लगभग आधी आबादी वर्तमान में गरीबी में जी रही है। ये वो लोग हैं, जो प्रतिदिन 2 डॉलर से कम कमाते हैं। इसमें से 1 अरब बच्चे हैं। गरीबी में रहने वालों में से 800 मिलियन से ज्यादा लोग अत्यधिक गरीबी (extreme poverty) में रहते हैं, जो प्रतिदिन 1.25 डॉलर से भी कम कमाते हैं।
गरीबी की परिभाषा
वैश्विक गरीबी (Global Poverty) की अगर बात करें, तो ग्लोबल लेवल पर उस व्यक्ति को गरीब माना जाता है, जो प्रतिदिन 2.15 डॉलर से कम कमाता है। गरीबी की ये परिभाषा वर्ल्ड बैंक ने दी है, जिसके अनुसार दुनिया में हर 10 लोगों में से 1 व्यक्ति गरीब है। इस सन्दर्भ में भारत की बात करें, तो पिछले नौ वर्षों में 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं। जो 2013-14 में 29.17% से घटकर 2022-23 में 11.28% हो गई है.
1990 में विश्व बैंक ने गरीबी की परिभाषा को प्रतिदिन 1 डॉलर पर सेट किया था। उसके बाद (2017) इसमें बदलाव किये गए, जिसके अनुसार, उस व्यक्ति को अत्यधिक गरीब माना गया, जो 1.90 अमेरिकी डॉलर से कम कम कमाता था। फिर विश्व बैंक ने सितंबर 2022 में वैश्विक गरीबी रेखा (Global Poverty Line) को अपडेट करके प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2.15 डॉलर निर्धारित किया।
भारत में गरीबी मापने की विधि
भारत में गरीबी को मापने के कई पैरामीटर हैं। सबसे कॉमन मेथड (method) आय और उपभोग स्तर (income or consumption levels) पर आधारित है। इसके अनुसार किसी परिवार या व्यक्ति की आय या खपत किसी दिए गए न्यूनतम स्तर से नीचे आती है, तो उस परिवार को गरीबी रेखा से नीचे (BPL) कहा जाता है।
भारत में स्वतंत्रता-पूर्व गरीबी आकलन
देश की आज़ादी से पहले, गरीबी का आकलन विभिन्न समितियों की सिफारिशों पर आधारित था, जैसे कि राष्ट्रीय योजना समिति (1938) और बॉम्बे योजना (1944), जिसने प्रति व्यक्ति प्रति माह ₹15 से ₹75 तक की गरीबी रेखा का सुझाव दिया था।
आज़ादी के बाद आधिकारिक समितियां
भारत की स्वतंत्रता के बाद से अब तक देश में गरीब लोगों की संख्या के अनुमान के लिये 6 आधिकारिक समितियों का गठन किया जा चुका है।
1) योजना आयोग कार्य समूह (वर्ष 1962)
2) वी एम दांडेकर और एन रथ (वर्ष 1971)
3) अलघ समिति (वर्ष 1979)
4) लकड़ावाला समिति (वर्ष 1993)
5) तेंदुलकर समिति (वर्ष 2009)
6) रंगराजन समिति (वर्ष 2014)
तेंदुलकर समिति (Tendulkar Committee-2009)
वर्तमान में, भारत में गरीबों का अनुमान लगाने के लिए Tendulkar समिति की सिफारिशों को आधार माना गया है। इस समिति ने गरीबी आकलन के लिए उपभोग पैटर्न (consumption patterns) के आधार पर गरीबी रेखा (poverty line) तय की थी। आपने Purchase Power Parity यानी PPP model के बारे में सुना होगा, ये मॉडल इसी समिति द्वारा दिया गया था, जो दो अलग-अलग देशों में समान वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने के लिए आवश्यक आय की गणना करता है।
तेंदुलकर गरीबी रेखा के अनुसार शहरों में जो व्यक्ति 1,000 रुपये प्रति माह या 33 रुपये प्रतिदिन व उससे कम कमाता है, उसे गरीब कहा गया है। वहीँ गांवों में 816 रुपये प्रति माह या 27 रुपये प्रति दिन या उससे कम कमाने वाले लोगों को गरीब माना गया है। हालांकि साल 2014 में, रंगराजन समिति ने शहरी क्षेत्रों के लिए 1,407 रुपये (47 रुपये प्रति दिन) और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 972 रुपये (33 रुपये प्रति दिन) की थोड़ी अधिक मासिक सीमा का सुझाव दिया था, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा रंगराजन समिति की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गई! इन दोनों रिपोर्ट को लेकर राज्यों के विचार भी अलग अलग थे। दिल्ली, झारखंड, मिजोरम जैसे कुछ राज्य रंगराजन रिपोर्ट के फेवर में थे, और ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने तेंदुलकर गरीबी रेखा का समर्थन किया। जिसका रिजल्ट यह हुआ कि आज भी हम 2009 में अपनाई गई तेंदुलकर गरीबी रेखा का इस्तेमाल करते हैं।
रंगराजन समिति (Rangarajan Committee-2014)
रंगराजन समिति की सिफारिशों में लोगों के एक बड़े स्वतंत्र सर्वेक्षण के आधार पर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) द्वारा अनुमान का उपयोग करना, साथ ही बचत करने में असमर्थ परिवार को गरीब मानने जैसे विभिन्न तरीके शामिल थे। इस समिति का ये सुझाव था कि कपड़े, जूते, शिक्षा, संस्थागत चिकित्सा देखभाल, न्यूट्रिशन, प्रोटीन और कैलोरी जैसी बेसिक नीड्स को भी (एक निश्चित टाइम पीरियड में) इस अनुमान का आधार बनाया जाना चाहिए। इस समिति ने इन सब पैरामीटर के आधार पर जब गरीबी का आकलन किया, तो पाया गया कि गरीबों की वो संख्या तेंदुलकर समिति के फार्मूले के आधार पर किये गए आकलन से कहीं ज्यादा थी। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दर 19% ज्यादा और शहरी क्षेत्रों में 41% ज्यादा पाई गई।
गरीबी आकलन में डेटा संग्रह के तरीके
यूनिफॉर्म रिकॉल पीरियड (URP): 1993-94 तक, गरीबी का अनुमान यूनिफॉर्म रिकॉल पीरियड (URP) पद्धति पर आधारित था, जिसमें व्यक्तियों से पिछले 30 दिनों में उनके उपभोग व्यय के बारे में पूछा जाता था।
मिश्रित रिकॉल पीरियड (MRP): इस पद्धत्ति का इस्तेमाल 1999-2000 तक किया गया, जिसके अनुसार पिछले 30 दिनों में गैर-टिकाऊ वस्तुओं (जैसे कपड़े, जूते, टिकाऊ सामान, शिक्षा और संस्थागत स्वास्थ्य व्यय) और अन्य सभी वस्तुओं की खपत को मापती है।
रिपोर्ट्स में स्पष्टता की कमी या गरीबी मापदंड में विसंगतियां?
2018 में वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional Poverty Index) जारी हुआ, जिसके अनुसार भारत में 2005/06 और 2015/16 के बीच गरीबी 27.5% कम हुई। इसके अनुसार 27.1 करोड़ से जयदा लोग गरीबी से बाहर निकले।
जबकि तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट बताती है कि 2004/05 और 2011/12 के बीच 13.7 करोड़ लोग ही ऐसे थे, जो गरीबी से बहार निकल पाए।
और रंगराजन समिति की मानें, तो 2009/10 और 2011/12 के बीच 9.2 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए। इसका मतलब है कि एक साल में 4.6 करोड़ गरीबी रेखा से बाहर निकले। इन तीनों रिपोर्ट्स के अलग डाटा में आप देखेंगे कि तेंदुलकर और रंगराजन समिति की पद्धति पर आधारित गरीबी अनुपात, वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुमान की तुलना में कम है।
असल में हमारे पास 2011-12 के बाद से उपभोग आधारित गरीबी से जुड़े आधिकारिक आंकड़े ही नहीं हैं। मतलब हम चाहें भी, तब भी बहुआयामी गरीबी सूचकांक से उनकी तुलना नहीं कर सकते। यही वजह है कि गरीबी को मापने के लिए सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी और पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे का इस्तेमाल किया जाता है। भारत अब एक मध्यम आय वाला देश है। लोगों की आय, उपभोग पैटर्न से लेकर कीमतों में बहुत बदलाव आया है, जिसके आधार पर नई गरीबी रेखा तय की जानी चाहिए।
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