Colouring Clothes Pollution Effects: वस्त्रों को रंगने का पर्यावरण पर बड़ा प्रभाव

Colouring Clothes: आज की आधुनिक फैशन और टेक्सटाइल इंडस्ट्री में वस्त्रों की रंगाई (Colouring Clothes Pollution Effects) का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन यह प्रक्रिया पर्यावरण पर भारी प्रभाव डालती है। पहले जहां रंगाई प्राकृतिक तरीकों से की जाती थी, अब सिंथेटिक रंगों और आधुनिक तकनीकों का उपयोग हो रहा है, जो पर्यावरणीय दृष्टिकोण से गंभीर चिंता का विषय बन चुका है। आइए जानें कि वस्त्रों की रंगाई का पर्यावरण पर क्या प्रभाव है, इसके तकनीकी पहलुओं को समझें, और देखें कि पिछले कुछ दशकों में इसमें किस प्रकार बदलाव आया है।

प्रारंभिक समय में कपड़ों की रंगाई के लिए प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग किया जाता था। ये रंग पौधों, फलों, फूलों, और यहां तक कि मिट्टी से भी प्राप्त किए जाते थे। उदाहरण के लिए:

  • इंडिगो (नीला रंग) – इंडिगोफेरा टिन्क्टोरिया नामक पौधे से निकाला जाता था।
  • मैडर (लाल रंग) – रूबिया पौधे की जड़ों से मिलता था।
  • हल्दी (पीला रंग) – हल्दी के पौधे से निकाला जाता था।

इन प्राकृतिक रंगों का सबसे बड़ा लाभ यह था कि ये बायोडिग्रेडेबल (जैव विघटनीय) थे, जिससे इनका पर्यावरण पर कम प्रभाव पड़ता था। इन रंगों में कोई रासायनिक तत्व नहीं होते थे और इनसे जल प्रदूषण का जोखिम भी काफी कम था।

सिंथेटिक रंग

वर्तमान में टेक्सटाइल इंडस्ट्री में सिंथेटिक रंगों का व्यापक उपयोग हो रहा है। ये रंग पेट्रोकेमिकल्स से बनते हैं और अधिक टिकाऊ होते हैं, जिससे कपड़ों का रंग धुलाई के बाद भी बना रहता है। लेकिन इसके साथ ही सिंथेटिक रंगों की निर्माण प्रक्रिया में भारी मात्रा में रसायनों का उपयोग होता है। आधुनिक रंगाई प्रक्रिया के कुछ तकनीकी पहलू इस प्रकार हैं:

  • रिएक्टिव डाई (Reactive Dyeing): यह प्रक्रिया टेक्सटाइल इंडस्ट्री में सबसे अधिक प्रचलित है। इसमें रंग और फाइबर के बीच एक रासायनिक बंधन (chemical bond) बनता है। हालांकि, इसमें बड़ी मात्रा में पानी की खपत होती है और अनयूज्ड रसायन भी जल प्रदूषण का कारण बनते हैं।
  • डिस्पर्स डाई (Disperse Dye): यह तकनीक मुख्यतः सिंथेटिक फाइबर्स, जैसे पॉलिएस्टर, की रंगाई में उपयोग होती है। इसे तैयार करने के लिए बड़े पैमाने पर सॉल्वेंट्स और अन्य रसायनों का इस्तेमाल होता है जो जल स्रोतों को प्रदूषित करते हैं।
  • वातावरणीय रंगाई (Atmospheric Dyeing): इसमें रंगों को उच्च तापमान और दाब के तहत कपड़े में स्थायी किया जाता है, जिसके लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह प्रक्रिया कार्बन उत्सर्जन को बढ़ाती है और पर्यावरण पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ता है।

पानी की खपत

प्रारंभिक समय में प्राकृतिक रंगाई में अपेक्षाकृत कम पानी का उपयोग होता था। रंग का घोल तैयार करके कपड़े में भिगोया जाता था, और अधिकतर रंग पुन: उपयोग किए जा सकते थे। वर्तमान में औद्योगिक रंगाई प्रक्रियाओं में प्रति किलो कपड़े के लिए 100-200 लीटर पानी का उपयोग होता है। यह भारी मात्रा में पानी का अपव्यय है, जो न केवल जल संसाधनों पर दबाव डालता है बल्कि कपड़ा उद्योग से निकलने वाला यह प्रदूषित पानी नदियों, झीलों, और समुद्रों को भी दूषित करता है।

रासायनिक प्रदूषण और भारी धातुएं

प्राकृतिक रंगों में रासायनिक तत्वों का अभाव होता था, जिससे प्रदूषण का जोखिम काफी कम था! आधुनिक रंगाई प्रक्रिया में भारी धातुएं, जैसे कि क्रोमियम, सीसा, और पारा, का उपयोग होता है। ये पदार्थ पानी में मिलकर जैव विविधता पर गंभीर प्रभाव डालते हैं। ये न केवल जलीय जीवों के लिए हानिकारक होते हैं, बल्कि अंततः मानव स्वास्थ्य पर भी असर डालते हैं, जैसे त्वचा संबंधी रोग और कैंसर का खतरा।

पारंपरिक रंगाई में बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती थी और अधिकतर कार्य हाथ से होते थे। आधुनिक रंगाई प्रक्रिया के लिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है, विशेषकर उच्च तापमान पर रंगों को फिक्स करने के लिए। यह कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) उत्सर्जन में वृद्धि करता है। अनुमान है कि कपड़ा उद्योग कुल वैश्विक CO₂ उत्सर्जन में लगभग 10% का योगदान देता है, जिसमें रंगाई की प्रक्रिया भी शामिल है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव

प्राकृतिक रंगों में कोई हानिकारक रसायन नहीं होते थे, जिससे श्रमिकों और उपभोक्ताओं दोनों के स्वास्थ्य पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ता था!आधुनिक रंगाई में उपयोग होने वाले रसायन श्रमिकों में त्वचा रोग, श्वास संबंधी समस्याएं और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। खासकर ऐसे कारखानों में जहां सुरक्षा मानकों का पालन नहीं किया जाता है, वहां श्रमिकों के स्वास्थ्य को खतरा बना रहता है।

सतत और पर्यावरण

आज के दौर में पर्यावरणीय नुकसान को कम करने के लिए स्थायी रंगाई प्रक्रियाओं का विकास किया जा रहा है:

  • प्राकृतिक रंगों का पुन: उपयोग: फूलों, फलों और अन्य प्राकृतिक स्रोतों से रंगों का पुनः उपयोग बढ़ रहा है। इन रंगों का पर्यावरणीय प्रभाव कम होता है और वे बायोडिग्रेडेबल भी होते हैं।
  • पानी की कुशलता और रिसाइक्लिंग: कुछ नई तकनीकें विकसित की जा रही हैं जो पानी की खपत को कम करती हैं, जैसे कि ड्राई डाई (Dry Dyeing) तकनीक जिसमें बिना पानी के रंगाई होती है।
  • रसायनों का विकल्प: हानिकारक रसायनों के स्थान पर बायोडिग्रेडेबल और कम विषैले रंगों का उपयोग किया जा रहा है, जिससे प्रदूषण में कमी लाई जा सके।

कपड़ों की रंगाई प्रक्रिया में पारंपरिक और आधुनिक तरीकों के बीच का अंतर साफ दिखता है। जहां पहले प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता था जो पर्यावरण-अनुकूल थे, वहीं आज रासायनिक रंगाई प्रक्रिया ने पर्यावरणीय चुनौतियों को जन्म दिया है। हालांकि, तकनीकी सुधारों और पर्यावरण-अनुकूल तरीकों को अपनाकर इस प्रभाव को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। उद्योग और उपभोक्ता दोनों का योगदान जरूरी है ताकि इस उद्योग को अधिक टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल बनाया जा सके।

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